बिहार में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ ही मप्र उपचुनावों की घोषणा की उम्मीद थी लेकिन किन्हीं कारणों से नहीं हो सकी, समाचार है की शीघ्र ही चुनावों की घोषणा हो जायेगी। प्रदेश की फिजा में सियासत की महक साफ़ महसूस की जा सकती है। ऐसे में आज दोनों प्रमुख दलों के दमखम की बात करनी बनती है।
सम्पादकीय / इण्डियामिक्स न्यूज़ आज बिहार में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ ही मप्र उपचुनावों की घोषणा की उम्मीद थी लेकिन किन्हीं कारणों से नहीं हो सकी, समाचार है की शीघ्र ही चुनावों की घोषणा हो जायेगी। प्रदेश की फिजा में सियासत की महक साफ़ महसूस की जा सकती है। ऐसे में आज दोनों प्रमुख दलों के दमखम की बात करनी बनती है।
मार्च में मप्र की राजनीति में जो हुआ वह प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के चर्चित अध्यायों में दर्ज हुआ है, जिसपर आने वाले समय में भी हजारों दफा बात की जायेगी लेकिन आज जो उसके असर से हो रहा है उसकी बात जरूरी है, ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन साधने के बाद अच्छी भली चल रही कमलनाथ सरकार के गिरने से बदली हुई परिस्थिति में हो रहे इस उपचुनाव पर प्रदेश की राजनीतिक स्थिरता तथा भविष्य के साथ मप्र की राजनीतिक दशा तथा दिशा तय करने का भार है। इसका भान दोनों दलों के शूरवीरों को हैं, इसलिए हम कमलनाथ व शिवराज सिंह चौहान को लगातार अपनी कमर कसते देख रहें हैं। मामा जी द्वारा करोड़ों के विकास कार्यों का भूमिपूजन, लोकार्पण हो अथवा घोषणाओं की बारिश. कमलनाथ के दिल्ली और विधानसभाओं के दौरे हो या बैठकों का दौर, बता रहा है की प्रदेश का चुनावी पारा अपने शबाब की ओर है।
दोनों दलों के प्रमुख नेता व कार्यकर्ता अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहें हैं, लेकिन ज़मीनी हालातों की बात करें तो उनको भी अपने दावों पर पूरा विश्वास है ऐसा उनकी भाव-भंगिमा तथा अन्य से नहीं दीखता. बात सही भी हैं, प्रादेशिक या राष्ट्रीय मिडिया के विश्लेषक भले ही भाजपा को फायदे में बताये, या कांग्रेस को कमजोर बता रहें हैं, लेकिन ज़मीनी हकीक़त ऐसी नहीं हैं, वास्तविकता यह है कि मार्च में हुए इस बेमेल मर्जर से दोनों दलों को नुकसान हुआ है, ये जरूर है की कांग्रेस को ज्यादा तथा भाजपा को कम फायदा हुआ है।
सिंधिया व उनके समर्थकों के भाजपा में आने का असर भाजपा के लिए कुछ सीटों पर तुरंत फ़ायदेमंद जरूर है लेकिन आगे ये भाजपा के लिए नुकसानदायक ही साबित होगा। 28 सीटों पर उपचुनाव होने, संगठन का कलेवर विशाल होने, समर्पित कार्यकर्ताओं तथा सहयोगी संगठनों का सहयोग होने की वजह से भाजपा मजबूत हैं, इस मजबूती में सिंधिया गुट के मर्जर का उतना बड़ा योगदान नहीं हैं जो बताया जा रहा है। असलियत में कमलनाथ की आस व शिवराज सिंह चौहान के विकास की डगर आसान नहीं हैं.
इन चार बिन्दुओं से आसानी से समझिये कैसे ?
- किसान कर्जमाफी, मोदी सरकार के हालिया कृषि सुधार था श्रम कानून संशोधन
कृषि के क्षेत्र में प्रसिद्ध इस प्रदेश में खेती-किसानी हमेशा हर चुनाव में मुद्दा रही है, कांग्रेस को पिछला चुनाव जितवाने में किसान कर्जमाफी का योगदान किसी से छुपा नहीं है। उपचुनाव में भी यह विषय हावी दिख रहा है। इस मुद्दे ने भाजपा के पक्ष में लोकसभा में कार्य किया था, लेकिन उपचुनाव में उतना लाभदायक नहीं होगा। सरकार द्वारा जारी हालिया किसान कर्जमाफ़ी की जानकारी सार्वजनिक होने के बाद कर्जमाफी पर जारी बहस की दिशा में बदलाव हो रहा है, इससे कांग्रेस को थोडा लाभ होने की सम्भावना बनती है।
मोदी सरकार द्वारा हाल ही में किये गए कृषि सुधार कानूनों का भाजपा को उपचुनाव में समस्या हो सकती है, जिसका कारण इसकी जटिलता, कांग्रेस व विपक्ष द्वारा इस मुद्दे का बुद्धिमानी से किया जा रहा उपयोग, स्थानीय भाजपा द्वारा इस विषय पर साफ़ संदेश पंहुचा पाने में में विफलता आदि है। ग्वालियर-चम्बल संभाग में हमें इसका विशेष विरोध देखने को मिल रहा है, केन्द्रीय कृषि मंत्री भी यहीं से हैं, ग्वालियर से ही प्रियंका गाँधी वाड्रा के तूफ़ानी रोड शो और सभाओं की शुरुआत की तैयारियाँ, किसान सम्मेलन आदि बता रहें हैं की कांग्रेस ने इन चुनावों में भाजपा के कर्जमाफी की विफलता के आरोप पर किसान विरोधी कृषि सुधारों को आजमाने का मन बना लिया है।
नये श्रम क़ानूनों को भी कांग्रेस व विपक्षी दल भाजपा के विपक्ष में भुनाने की कोशिश में हैं, जिसका कारण विभिन्न मजदूर संगठनों के द्वारा किये जा रहे इसके विरोध से मिल रहा संबल है, कृषि सुधार क़ानूनों के समान ही श्रम सुधार क़ानूनों को लेकर अभी तक आम जनता व मज़दूरों के बीच जागरूकता का अभाव है, साथ ही मिडिया में भी इनका कृषि सुधारों के मुकाबले अधिक विरोध देखने को मिल रहा है, ऐसे में अगर कांग्रेस व अन्य विपक्ष मिल कर नये कृषि सुधार व श्रम सुधार क़ानूनों को लेकर भाजपा को घेरे तो भाजपा को थोड़ा नुकसान हो सकता है।
सिंधिया व उनके समर्थकों का भाजपा में आना एक तरह से भाजपा के लिए फ़ायदेमंद माना जा रहा है, लेकिन इससे भाजपा के आंतरिक संगठनात्मक ढांचे को बड़ा नुकसान हुआ है, जिसका असर कई विधानसभा सीटों पर भाजपा नेताओं के कांग्रेस में जाने के रूप में दिख रहा लेकिन इसका बड़ा असर उपचुनावों के समय भितरघात के रूप में दिखाई देगा, जिससे कांग्रेस के लिए लाभ की सम्भावना बनती है। सिंधिया समर्थकों के भाजपा के आने के बाद कई सीटों पे पहले से स्थापित भाजपा नेताओं व उनके समर्थकों के लिए असहजता की स्थिति बनी हुई है, भाजपा के प्रवक्ता आदि भले ही इस स्थिति को नकारते हों लेकिन अंदर से वो भी इस सच्चाई से परिचित है। ग्वालियर, साँची, हाटपिपल्या, सुरखी, बदनावर आदि कुछ सीटें ऐसी है जहाँ भाजपा को अपनों से नुकसान होने का अंदेशा अभी से लगाया जा रहा है।
सिंधिया और उनके समर्थकों के जाने के बाद कमलनाथ को मप्र में काम करने के लिए अब ज्यादा खुला मैदान व अवसर मिला है, जिसका लाभ भी वो उठा रहें हैं। बिखरने के बाद कांग्रेस को व्यवस्थित करना, राज्य स्तर पर केन्द्रीय नेता के रूप में खुद को स्थापित करने में सफल होना, पार्टी तथा संगठन की बागडोर अपने व अपने विश्वस्तों के पास रखने में सफल रहना, नयी व युवा टीम तथा दिग्विजय सिंह तथा वरिष्ठ टीम के मध्य संतुलन आदि ये सभी कार्य जिनसे प्रदेश कांग्रेस रिफाइन हुई, सिंधिया तथा उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़ने के बाद ही संभव हो सकें। कमलनाथ की 15 महीने की सरकार का ज्यादा समय सत्ता व पार्टी में शक्ति संतुलन स्थापित करने में जाया हुआ था, जिसका नुकसान पार्टी को हुआ, लेकिन भविष्य में इसके लाभ भी कांग्रेस को दिखेंगे।
जब संगठनात्मक शक्ति की बात आती है तो भाजपा, कांग्रेस के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत दिखाई देती हैं, जिसका कारण उसका अनुशासन, समर्पित कार्यकर्ता तथा व्यवस्थित प्रक्रिया है। भाजपा को जो प्रमुख संगठनात्मक दिक्कत है उसकी चर्चा ऊपर कर चुका हूँ इसलिए यहाँ कांग्रेस की बात करेंगे। सिंधिया व उनके समर्थकों के जाने के बाद कांग्रेस को दो तरह के नुकसान हुए हैं, पहला क्षेत्र में स्थानीय नेताओं (कार्यकर्ता) की कमी व द्वितीय पंक्ति के नेताओं की बढती लालसा। इसमें पहली समस्या का निराकरण पीसीसी ने हर विधानसभा में द्वितीय पंक्ति के नेताओं को ब्लाक, मंडल अथवा जिले की कार्यकारिणी में जगह देकर करने का प्रयास किया है, लेकिन दूसरी समस्या ज्यादा बड़ी है। कई विधानसभाओं में वर्षों से इंतजार कर रहें द्वितीय पंक्ति के नेता, सिंधिया समर्थकों के जाने के बाद टिकट के इंतज़ार में थें उनको लगा की अब उनका नम्बर लग जायेगा, लेकिन कई सीटों पर कांग्रेस ने अपनी पहली सूची में इनकी नहीं सुनी, जिसका असर हमने मेहगांव, भांडेर, डबरा, साँची आदि सीटों पर देखा। पूर्व गृह राज्यमंत्री महेंद्र बौद्ध का कांग्रेस छोड़ बसपा में जाना, इस बात की और इशारा कर रहा है की सिंधिया के मर्जर ने दोनों दलों पर असर डाला है। अब देखना यह है की किसका प्रबंधन अच्छा है, जिसका प्रबंधन अच्छा बाजी उसकी।
इन चुनावों में कोई एक मुद्दा चाहे वो कर्जमाफ़ी हो, नवीन कृषि सुधार हो, सिंधिया व उनके समर्थकों का पार्टी छोड़ना हो या कोई और, काम नहीं करेगा। यहाँ हर विधानसभा पर स्थानीय मुद्दों व समीकरणों का प्रभाव ज्यादा रहेगा, यहीं कारण है की हर विधानसभा पर करोड़ों का लोकार्पण, शिलान्यास भाजपा द्वारा रोज हो रहा है वो भी सिंधिया व शिवराज की मौजूदगी में।
स्थानीय मुद्दों के साथ कर्जमाफी आदि का उपयोग कौनसा दल कैसे करता हैं, किसका प्रचार अभियान कैसा हैं, आदि का चुनाव परिणाम पर बड़ा असर पड़ेगा। कांग्रेस इस चुनाव में सिंधिया व उनके समर्थकों को गद्दार कह कर अथवा कमलनाथ के शासन की उपलब्धियों के दम पर नहीं जीत सकती, जीतने के लिए कांग्रेस को विधानसभा वार रणनीति की जरूरत पड़ेगी।
वर्तमान स्थिति में दोनों दल लगभग बराबर स्थिति में हैं। भाजपा अपने संगठन, अनुभव तथा तैयारी के कारण थोड़ी मजबूत अवश्य दिख रही हैं, लेकिन उतनी नहीं, जितनी मिडिया दिखा रही हैं। वर्तमान स्थितियों में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रदेश के सबसे महत्वपूर्ण उपचुनावों के रोचक व संघर्ष पूर्ण होने की पूरी सम्भावना हैं, यहाँ भाजपा और कांग्रेस में किसी की भी राह आसान नहीं दिख रही हैं।