इस साल का बजट सत्र केवल एक ही चीज के लिए खास था कि वह पेपर लेस था, मगर इस रद्दी बजट में रद्दी की आवश्यकता क्यों पड़ती आख़िर?, जानिए बजट का सरल व तार्किक विश्लेषण हमारे साथ
इंडियामिक्स न्यूज़ नेटवर्क, बजट इस साल का हो या पीछे गये तमाम सालों का, देश के आम नागरिक को चाहिए तो केवल क्या? रोटी, कपड़ा और मकान। इसी क्रम में देश की सरकार सीना ताने अपने राष्ट्रहित का ढ़ोल पीटते पिटाते बख़ूबी राष्ट्र के हित में जोरदार कार्य करने से भी पीछे नहीं है। इसी थपथपाई पिट पर और थप-थपाना जब मुनासिब नहीं लगता जब आप एक धून में दूसरी धून भूल जाएं। मेरा यहाँ दूसरी धून से आशय देश के बिगड़ते आर्थिक हालात है।
इस बजट में कोरोना की आड़ में लॉक डाउन की मार झेला बिचारा आम आदमी एक झूठी आस फिर लगाए बैठा जिसमे उसे महंगाई से राहत की उम्मीद के साथ जरूरी सामान के दाम कम होने, होम लोन, इनकम टैक्स में छूट, बजुर्गों को और सहूलियतें तथा ब्याज दर में बढ़ोतरी। वहीं कारोबारी-व्यापारी वर्ग भी कोरोना वायरस के चलते मंद हुए व्यापार काे फिर से पटरी पर लाने के लिए जीएसटी में छूट की उम्मीद लगाए बैठा था।
मगर हुआ उलट बजट में ऐसा कोई जिक्र किया ही नहीं गया। सबसे गरीब और सबसे अमीर को रिझाने के फार्मूला में हर बार सरकार मध्यम वर्ग को पिचका कर रख देती है। ना पेट्रोल सस्ता हुआ, ना घर सस्ता हुआ , ना कपड़ा सस्ता हुआ, ना अनाज सस्ता हुआ, ना खाने का तेल सस्ता हुआ, ना इलाज सस्ता हुआ अर्थात पूरा पूरा देखे तो एक आम आदमी का जीवन ही सस्ता है बाकी सब महँगा है। बजट में बेरोजगार को रोजगार देने में कोई जोर नहीं केवल आत्म निर्भर भारत का नारा दे कर हवा में तीर छोड़ना हो गया।
भगत सिंह ने बहुत एक खूब बात कही थी की बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की आवाज करनी पड़ती है ठीक उसी तरह संसद में बिगड़े बजट को पेश होता देख रहा विपक्ष ना जाने क्यों अपंग की स्थिति में बैठा है। वहीं आज लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी किसी ओर सहारे पर खड़ा नजर आता है। आम जनता की आवाज दब गयी है जिसे आकाओं के कानों तक पहुंचाए कौन?
युवा त्वरित मुद्दों राष्ट्रहित व धर्महीत की पट्टी बांधे केवल वही वही देख रहा है जो उसे दिखा रहे हैं। अपने वर्तमान और भविष्य की चिंता को देखते हुए सही समय पर सही का विरोध करना भी भारत जैसे युवा देश के युवाओं ने भुला दिया। कहीं हद तक इसे योजनाबद्ध तरीके में भी शामिल किया जा सकता है। जरूरी नहीं सरकार की हर नीति गलत है मगर जिन नीतियों में सरकार गलत है उसे आईना दिखाना स्वाभाविक है।
मगर लाचार व बेबस आम मानुस आखिर करे तो करे क्या? ना विपक्ष उस काबिल है ना देश का चौथा स्तम्भ, जो हक को हक़ से उठा सके। सरकारी कही जाने वाली कम्पनियों व सरकारी संस्थानो को निजी हाथों में सौंप देना भी कहाँ तक उचित है इस पर तो भगवान ही जाने। शायद हम भूल बैठे है कि सन 1947 से पहले भारत किसी अन्य देश की ही व्यापारिक कम्पनी का गुलाम हुआ करता था।
क्या हम कल्पना कर सकते है की आने वाले समय मे चुनावी रण नहीं व्यापारिक रण होगा और यही कम्पनियां राजनीति नहीं रणनीति करेगी तथा चुनाव में खड़ी हो कर अपने हक में जनता से अपील करेगी कि आओ हमे वोट दो ?
पहले कमल वाले आम जन को साथ ले कर पंजे वालो को खूब घेरते थे। तब पंजे वाले भी बैकफुट पर होते थे मगर आज पंजे वालो ने अपना वो हश्र किया है जिससे कोई पंजे से पंजा मिलना मुनासिब नहीं समझता। ऐसे में अब लोकतंत्र केवल कमल वालो के हिस्से में है क्योंकि पंजे वालो की कोई सुनता नहीं और कमल वाले सुनाने देंगे नहीं। सत्ता पक्ष केवल तब ही सही फैसले लेगा जब उसे विपक्ष का भय होगा। ऐसे में विपक्ष की भूमिका आज हमारे देश से शून्य हो चुकी है।
शर्म और लाज के मारे आम जन बेचारे बस विचार मंथन में ही यह साल भी महँगाई के बोझ तले गुजार देंगे। देश की यही नहीं हर सरकार को चाहिए कि वह पहले मध्यम वर्ग को साधने का प्रयास करे उसके लिए सोचे। सरकार रोजमर्रा पर महँगाई बढ़ने या बढाने का पूरा साहस तब रखे जब वह ख़ुद सन्तुष्ट हो कि देश में भुखमरी व बेरोजगारी जैसी समस्या केवल अब 2 प्रतिशत है।