वहीं भाजपा के भीतर भी बाहरी नेताओं की इंट्री से पार्टी के पुराने नेताओ और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को देखते हुए पार्टी ने हाथ खड़ा कर लिया है,लेकिन अभी भी इक्का-दुक्का नेताओं को पार्टी की सदस्यता दिलाई जा रही है
इंडियामिक्स/संपादकीय उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव से पहले नेताओं के बीच पाला बदलने की जो होड़ चली थी,उसकी रफ्तार अब काफी कम हो गई है.चाहें समाजवादी पार्टी हो या फिर भारतीय जनता पार्टी ने भी अब बाहरी नेताओं की इंट्री पर रोक लगा दी है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो घोषणा तक कर दी है कि अब वह किसी बाहरी नेता को पार्टी में इंट्री नहीं देंगे,उधर, भाजपा ने खुलकर तो कुछ नहीं कहा है,लेकिन अब उसने भी दलबदलू नेताओं से दूरी बना ली है.बहरहाल, पाला बदलने की दौड़ में कई नेताओं को तो उनकी मंजिल मिल गई,लेकिन इस दौड़ में शामिल सभी नेताओं की किस्मत एक जैसी नहीं रही. कई नेता ऐसे भी रहे जिनकी किस्मत ने उनका पूरी तरह से साथ नहीं दिया.इसमें से कुछ वह नेता भी थे,जिन्होंने पाला बदलने का फैसला काफी देरी से लिया,जिस कारण हासिए पर खड़े रह गए. इसीलिए पश्चिमी यूपी में कांग्रेस का बड़ा मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले इमरान मसूद जो लम्बे समय से समाजवादी चोला ओढ़ने को बेताब लग रहे थे,उनके लिए सपा में दरवाजे नहीं खुल पाए और उन्हें बेमन से बहुजन समाज पार्टी में जाने को मजबूर होना पड़ गया.इसी प्रकार भीम आर्मी के प्रमुख चन्द्रशेखर आजादा रावण भी समाजवादी पार्टी से समझौता नहीं कर पाए.
वहीं भाजपा के भीतर भी बाहरी नेताओं की इंट्री से पार्टी के पुराने नेताओ और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को देखते हुए पार्टी ने हाथ खड़ा कर लिया है,लेकिन अभी भी इक्का-दुक्का नेताओं को पार्टी की सदस्यता दिलाई जा रही है.खैर,नेताओं के पाला बदलने के खेल में सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को उठाना पड़ा. कांग्रेस तो करीब-करीब नेताविहीन ही हो गई,.कमोवेश बसपा का भी यही हाल है. बसपा के सभी दिग्गज नेता पार्टी से बाहर चले गए हैं,बस सतीश मिश्र एक पुराना और बड़ा चेहरा पार्टी में बाकी रह गया है.सतीश मिश्रा के सहारे ही बसपा ब्राहमण कार्ड खेलने की कोशिश कर रही है,बसपा ने अपनी पहली लिस्ट में ही जिसने उसने 53 उम्मीदवारों में से 17 ब्राहमणों और 14 मुस्लिमों के अलावा 09-09 प्रत्याशी दलित और पिछड़ा समाज के हैं. बसपा ने दो जाट औ एक यादव को प्रत्याशी बनाया है.
बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो अभी तक सपा ने 36 प्रत्याशियों की ही घोषणा की है,इसमें उसने जाट नेताओं को 06, पिछड़ा वर्ग के नेताओं को 04,दलितों को 05,सबसे अधिक मुस्लिमों को 10 एवं अन्य को 11 टिकट दिए हैं.भारतीय जनता पार्टी जो किसान आदोंलन के चलते काफी मुश्किल में थी उसने जाट नेताओं पर ही सबसे बड़ा दांव लगा दिया है.
भाजपा ने 107 प्रत्याशियों की पहली लिस्ट जारी की हैं, हाल ही में भाजपा के पिछड़ा और दलि समाज के कई नेताओं ने पार्टी से नाता तोड़ा है. इसके अलावा किसान आंदोलन भी उसके लिए बड़ा सिरदर्द था, इसी लिए भाजपा ने की पहली लिस्ट में जाट उम्मीदवारों की संख्या 17 है और इसके अलावा 02 यादव, पिछड़ा वर्ग के 25, दलितों वर्ग के 19 और अगड़ा समाज के 44 नेताओं को टिकट दिया है. कांग्रेस ने 125 प्रत्याशियों की घोषणा की है जिसमें 02 जाट, 05 यादव, 28 पिछड़ा, 33 दलित, 20 मुस्लिम वा 37 अन्य शामिल हैं.
दरअसल, दलबदलुओं ने करीब-करीब सभी सियासी दलों का खेल बिगाड़ दिया है. इसी कारण टिकट बंटवारें में भी अंतिम समय में सभी दलों को काफी उलटफेर करना पड़ा.वैसे दलबदल पहली बार किसी पार्टी की समस्या नहीं बना है. दलबदल के हमाम में सभी राजनैतिक दल ‘नंगे’ नजर आते हैं. इसी लिए तो दलबदल रोकने के लिए बनाए गए तमाम कानूनों में हमारे नेता छेद पर छेद करने से बाज नहीं आते हैं. जिस भी पार्टी को लगता है कि कोई नेता उसके लिए वोट बटोरू साबित हो सकता है तो वह बिना उसकी विश्वसनीयता जाचें और उसके सियासी अतीत को अनदेखा करके अपनी पार्टी में शामिल कर लेता है,ऐसे नेता उस दल का तो नुकसान करते हैं जिसने उस पर विश्वास किया था,लेकिन इनकी मौकापरस्ती,इनको खूब फलने-फूलने का मौका देती है.
आज जो नजारा यूपी में देखने को मिल रहा है,वैसाही नजारा कुछ समय पूर्व बिहार में भी देखने को मिला था,कुछ नेताओं को जैसे ही लगने लगा कि नीतीश कुमार सरकार की वापसी नहीं होगी और राजद की स्थिति मजबूत है, तो सत्ता दल के कई नेता टूट कर राजद में जा मिले थे। ऐसी ही भगदड़ बंगाल विधानसभा चुनाव में भी देखी गई। तब भाजपा की स्थिति मजबूत नजर आ रही थी, इसलिए तृणमूल के कई नेताओं ने पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। जब नतीजे कयासों के विपरीत आए तो यही नेता तमाम बहाने बनाकर तृणमूल कांग्रेस में वापस आने लगे।यही स्थिति अब उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही है। कांग्रेस और भाजपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले नेता जैसे कतार लगा कर खड़े हो गए हैं।
बहरहाल, बात यदि आज भारतीय जनता पार्टी को झटका देने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या और दारा सिंह सहित अन्य नेताओं और कांग्रेस का दामन छोड़कर सपा की जगह बसपा की सदस्यता ग्रहण करने को मजबूर होने वाले इमरान मसूद की हो,बीते कल इस जगह पर कोई और खड़ा था और आने वाले कल में यहां कोई और खड़ा नजर आएगा. यह काफी लम्बा सिलसिला है,जो कभी थमने का नाम नहीं लेगा,कमोवेश ऐसे दलबदलू नेता पूरे देश मेें मिल जाते हैं. नेता तो नेता कभी-कभी तो पूरी की पूरी पार्टी ही चोला बदल लेती है. महाराष्ट्र में शिवसेना इसका सबसे बड़ा और ताजा उदाहरण है, जो विधान सभा का चुनाव तो भाजपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के खिलाफ लड़ी थी,लेकिन जब बीजेपी ने शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने से इंकार कर दिया तो ठाकरे ने सत्ता की खातिर अपने विरोधी दल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर ही सरकार बना ली और वोटर ठगा सा देखता रह गया. ऐसा ही कारनामा बिहार में नीतिश कुमार भी कर चुके हैं तो एक समय में यूपी में भाजपा-बसपा के गठबंधन वाली सरकार भी इसकी बड़ी मिसाल बन चुकी है.केन्द्र में भी कई बार इसकी बानगी देखने को मिल चुकी है.