
पटना/इंडियामिक्स विधानचुनाव की घड़ी करीब आती जा रही है। चंद महीनों बाद यहां नई सरकार का गठन होना है। सरकार बनाने के लिये एनडीए और इंडिया गठबंधन के साथ-साथ मैदान में जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर और ओवैसी भी अपना भविष्य तलाश रहे हैं। बिहार में अगला सीएम कौन होगा,इसको लेकर एनडीए ने तो साफ कर दिया है कि उनकी तरफ से नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं,लेकिन इंडिया गठबंधन या महागठबंधन में शामिल कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी के बीच भावी सीएम को लेकर कोई नाम नहीं तय हो पाया है,जबकि आरजेडी तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा बता रहे हैं। यह सब तब देखने को आ रहा है जबकि कांग्रेस और राजद के बीच रिश्ता दशकों पुराना है।मगर अब लगता है कि दोनों ही दल इसे आगे बढ़ाने के मूड में नहीं हैं। इसी के चलते मौजूदा दौर में यह गठबंधन एक बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ा नजर आ रहा है। लालू यादव और सोनिया गांधी की दोस्ती ने वर्षों तक दोनों दलों के संबंधों को मजबूती दी, लेकिन देखने में यह आ रहा है कि जबसे राहुल गांधी ने कांग्रेस की कमान अपने हाथों में लीे हैं, तबसे यह रिश्ता लगातार खिंचाव का शिकार होता जा रहा है। यह खिंचाव केवल राजनीतिक फैसलों में नहीं, बल्कि वैचारिक टकराव और नेतृत्व के बीच भरोसे की कमी में भी दिखाई देता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी बिहार में तेजस्वी के समानांतर कांग्रेस के एक नेता को उभारना चाह रहे हैं। राहुल गांधी का कन्हैया कुमार को बिहार में आगे करना और समय-समय पर उनका साथ देना, आरजेडी को साफ तौर पर चुभता है। लालू यादव को यह डर सताता है कि कांग्रेस कहीं उनके यादव वोट बैंक में सेंध न लगा ले, और यही डर तेजस्वी यादव के व्यवहार में भी झलकता है। तेजस्वी खुद को बिहार की राजनीति में एकमात्र विकल्प के रूप में स्थापित करने में लगे हैं, और ऐसे में कन्हैया कुमार जैसे नेताओं का उभार उन्हें असहज कर देता है। यह असहजता सिर्फ जातिगत समीकरणों की वजह से नहीं है, बल्कि कांग्रेस की बदली हुई रणनीति का संकेत भी देती है, जिसमें वह अब खुद को हर वर्ग में स्वीकार्य बनाना चाहती है, चाहे वह सवर्ण हों, दलित हों या यादव। लेकिन समस्या यह है कि लालू यादव कांग्रेस को सवर्णों की राजनीति करने से नहीं रोकते, लेकिन जैसे ही कांग्रेस बिहार के यादव या दलित वोट बैंक में हाथ डालती है, उन्हें परेशानी होने लगती है। पप्पू यादव और कन्हैया कुमार ये दोनों चेहरे लालू यादव के लिए खतरे की घंटी बन गए हैं।
खासकर तब, जब ये दोनों नेता सामाजिक न्याय की वही भाषा बोलते हैं जिसे लालू यादव ने दशकों पहले गढ़ा था। पप्पू यादव का क्षेत्रीय प्रभाव और कन्हैया कुमार की वैचारिक पकड़, दोनों ही आरजेडी को अस्थिर कर सकते हैं और राहुल गांधी का इन दोनों को प्रमोट करना, आरजेडी को यह समझाने का संकेत है कि कांग्रेस अब सिर्फ सहायक दल बनकर नहीं रहना चाहती,लेकिन यह टकराव सिर्फ वैचारिक या जातिगत नहीं है, बल्कि नेतृत्व के सवाल पर भी है। कांग्रेस बिहार में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने से कतरा रही है, जबकि आरजेडी स्पष्ट रूप से यह ऐलान कर चुकी है। तेजस्वी की अगुवाई में महागठबंधन की बैठकें हो रही हैं, कोआर्डिनेशन कमेटी बनी है और सब कुछ ऐसा लग रहा है जैसे चुनावी रणनीति उनके नेतृत्व में ही तैयार हो रही हो। लेकिन कांग्रेस का यह मानना कि तेजस्वी का नाम सामने लाकर चुनाव लड़ने से दलित, सवर्ण और गैर-यादव पिछड़ा वर्ग उनके साथ नहीं आएगा, यह दिखाता है कि दोनों दलों की सोच में गहरा फासला है। यह वही कांग्रेस है जिसने कभी लालू यादव के भ्रष्टाचार मामलों में फंसे होने के बावजूद खुलकर उनका समर्थन किया था, लेकिन अब वह अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाना चाहती है। राहुल गांधी की रणनीति यह है कि जैसे 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का चेहरा नहीं घोषित कर इंडिया गठबंधन ने लड़ा, वैसे ही बिहार में भी मुख्यमंत्री पद के चेहरे को लेकर सस्पेंस बना रहे ताकि सभी जातियों और वर्गों के वोट एक साथ जोड़े जा सकें। लेकिन लालू और तेजस्वी के लिए यह रणनीति उनकी स्वीकार्यता और नेतृत्व क्षमता पर सीधा सवाल है।
गौरतलब है लालू यादव हमेशा से अपने मुस्लिम-यादव समीकरण पर भरोसा करते रहे हैं, और इसी समीकरण को बचाए रखने के लिए वे कांग्रेस को इस दायरे में आने से रोकना चाहते हैं। 2019 में जब कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा किशनगंज से जीत गया, और 2020 में कांग्रेस के चार मुस्लिम विधायक विधानसभा में पहुंचे, तो यह आरजेडी के लिए एक तरह की चेतावनी थी। आरजेडी चाहती है कि मुस्लिम वोट पूरे तौर पर उनके पास रहें, लेकिन कांग्रेस के सक्रिय होने से इस समीकरण में दरार आने लगी है। बात यहीं तक सीमित नहीं है राजेश कुमार को बिहार कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने पर भी लालू यादव की नाराज हैं। वे चाहते थे कि अध्यक्ष वही बने जो उनके करीब हो, लेकिन राहुल गांधी ने राजेश को चुना जो दलित समाज से आते हैं और कांग्रेस को इस वर्ग में पैठ दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। लालू यादव की आपत्ति इस बात पर है कि कांग्रेस अगर दलित और यादव, दोनों वोट बैंक में सेंध लगाने लगी तो आरजेडी की प्रासंगिकता क्या रह जाएगी? राहुल गांधी का जातिगत जनगणना पर आक्रामक रुख भी लालू यादव को अखरता है। लालू खुद कास्ट सेंसस के सबसे बड़े समर्थक रहे हैं, और जब राहुल गांधी ने बिहार सरकार द्वारा कराई गई जातीय गणना को फर्जी बता दिया था, तब यह एक सीधी चुनौती की तरह लगा। यह बयान, उस वक्त आया जब आरजेडी इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बता रही थी, और महागठबंधन इसे प्रचारित कर रहा था। यह और बात है कि राजद इस पर खुलकर नहीं बोल रही है। कहा तो यह भी जा रहा है कि तेजस्वी यादव चाहे जितना भी दावा करें कि महागठबंधन में कोई विवाद नहीं है, लेकिन सच यही है कि महागठबंधन एक बेहद असहज समझौते पर चल रहा है। कांग्रेस का अंदरखाने यह मानना है कि तेजस्वी की स्वीकार्यता सीमित है, और अगर वे चेहरा बनते हैं, तो कांग्रेस को नुकसान हो सकता है। इसलिए कांग्रेस चाहती है कि चुनाव में चेहरा न हो,ताकि जरूरत के हिसाब से निर्णय लिया जा सके। यह रणनीति जहां एक ओर कांग्रेस के लिए सुरक्षित है, वहीं आरजेडी को असुरक्षित बनाती है।